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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


मगर गोविंदराम की ज़िंदगी का रास्ता ऐसा आसान न था। ऐसा कोई विभाग न था, जहाँ उसने नौकरी के लिए प्रार्थना-पत्र न दिया हो। महीनों उसका यही काम था कि सुबह को अधिकारियों के बँगलों पर हाजिरी देता। दिन-भर सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाता, शाम को मायूस और दुःखित मुँह लपेटकर पड़ा रहता। न कोई आधार था, न कोई सिफ़ारिश। कालेज की आला तालीम ने मिजाज में स्वाभिमान का वह अहसास पैदा कर दिया था, जो उसकी मौजूदा हैसियत में ऊँचा था। इसलिए जब उसे रूखे और दिलशिकन अल्फाज़ में इन्कार में जवाब मिलते, या अपने ज़मीर का खून करके दूसरों की तारीफ़ में खुशामद करना पड़ता तो उसकी आत्मा को बहुत सदमा होता। कभी-कभी उसे लक्ष्मीदत्त पर रश्क आता- ''मैं उससे किस बात में कम था? मेरी मदद से ही उसने डिग्री पाई, मगर वह तीन सौ रुपए माहवार का अफ़सर है, और मैं तीन रुपए की गुलामी के लिए ठोकरें खाता फिरता हूँ। रसूख और अहकाम के मुक़ाबले में लियाक़त की यह गुलामी?''

एक बार सख्त मायूसी के आलम में उसने ललिता से इन्हीं अल्फाज में अपनी तक़दीर का शिकवा किया, मगर ललिता ने उसकी तरफ़ कुछ ऐसी निगाहों से देखा कि गोविंदराम पर घड़ों पानी पड़ गया। मारे शर्म के सर न उठा सका। आखिर तीन महीने की दौड़-धूप के बाद एक पाठशाला में उसे पचास रुपए की जगह मिल गई।

गोविंदराम ने यह नौकरी बहुत खुशी से मंजूर की। फूला न समाया, गोया कोई खजाना हाथ आ गया। तक़दीर को कोसने से छुट्टी मिली, मगर बहुत थोड़े दिनों के लिए। खड़े होने की जगह पाई थी, बैठने की फिक्र हुई। तमन्नाओं ने पाँव फैलाया, नौजवान आदमी था, दिल में उमंग मौजूद थी, कानून का इम्तिहान देने का इरादा पक्का हो गया, मगर कम वेतन, उसमें कानूनी फ़ीस और किताबों का खर्च निकालकर घरेलू खर्च के लिए इतनी बचत न होती कि आए दिन की उलझनों से छूटे। यह कानून का जोश यहाँ तक बढ़ा कि कभी-कभी उससे कर्त्तव्य में हर्ज होता। एक बार हेडमास्टर साहब क्रोधित भी हुए, मगर गोविंदराम वक़ालत का ख्वाब देख रहा था। उसने हेडमास्टर की कुछ परवा न की, बल्कि उनके कमरे में से गाता हुआ निकला और बाहर आकर दूसरे मास्टरों में डींग मारने लगा- ''अजी, हमें कौन-सी हमेशा गुलामी करनी है। यहाँ तो चंद दिनों के और मेहमान हैं, फिर तो इस पाठशाला में आग लगा दूँगा। चार घंटे का नौकर हूँ कुछ काम का ठेका नहीं लिया है। तर्जुमा की कॉपियाँ घर पर नहीं ले जा सकता। पाठशाला का काम पाठशाला में होगा। चाहे किसी को बुरा लगे या भला। मेरा तो कॉपियाँ देखते ही जी भर गया है।''

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